पंडित नेहरू को भी संसद में खरी खोटी सुनानें वाले राष्ट्रकवि दिनकर जैसा कोई नहीं!
हिंदी भाषा के कवियों की गिनती कम नहीं रही है लेकिन ऐसे भी कवि नहीं हुए जो राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की बराबरी कर लें. आजकल के कवि जब एक पक्षीय होकर लेखन कार्य करते हैं, उन्हें इस बात की चिंता सताते रहती है कि हमें अमुक को खुश करना है तो उसको ध्यान में रखना है.
लेकिन यही तो अंतर है दिनकर जी और अन्य कवियों में. 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में जन्में रामधारी सिंह दिनकर नें शुरू से अंत तक जितनी भी रचनाएँ की, वे बिना किसी डर के, निस्वार्थ भाव से केवल जनता के लिए हीं थी.
यही कारण है कि आजादी से पहले जिसे विद्रोही कवि कहा जाता था, वो आजादी के बाद राष्ट्रकवि हो गए. उन्होनें किसी का फैन बननें की कोशिश नहीं कि, बल्कि जो उन्हें अच्छा लगा, उन्होनें वही ग्रहण किया. जब 1930 में महात्मा गाँधी नें नमक सत्याग्रह चलाकर अंग्रेजों पर दबाव बनाया लेकिन अगले हीं साल 1931 में गोलमेज सम्मेलन में भाग लेनें चले गए, उसी पर दिनकर जी नें अपनी कविता ‘हिमालय’ में तंज कसा.
“रोक युधिष्ठिर को न यहाँ, जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर”
इसमें गाँधी को युधिष्ठिर जबकि भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद को अर्जुन, भीम से संबोधित किया. लेकिन आजादी मिलनें के बाद गाँधी भक्ति में उन्होनें लिखा
“बापू मैं तेरा समयुगीन,है बात बड़ी,पर कहने दे
लघुता को भूल तनिक गरिमा के महासिंधु में बहने दे.”
वह थे तो वीररस के कवि, यानि जिनके रग रग में राष्ट्रवाद की भावना भरी पड़ी थी. लेकिन साथ हीं वे जनमानस की आवाज भी उतनी हीं गंभीरता से उठाते थे. देश की जान किसान के लिए उनकी पंक्तियाँ थीं
“जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है
छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है
मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है
वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है”
उनकी लेखनी उनके मन से चलती थी. उनके किसी एक खांचे में बैठाना असंभव है. वे राष्ट्रवादी थे, तो समाजवादी भी, गाँधीवादी थे तो मार्क्सवादी भी, क्रांतिकारी कवि भी थे और परंपरावादी भी. यानि जहाँ उन्हें जो अच्छा लगा, बस लेखनी चल जाती थी. लेकिन इसके बावजूद वह किसी का अंधअनुसरण नहीं करते थे. गाँधी-मार्क्स पर उन्होने लिखा
“अच्छे लगते मार्क्स, किंतु है अधिक प्रेम गांधी से.
प्रिय है शीतल पवन, प्रेरणा लेता हूं आंधी से.”
यानि सच और परंपरा को स्वीकार करनें में उन्हे तनिक भी गुरेज नहीं था. देश की राजधानी में बैठे हुक्मरानों पर चोट करती दिनकर जी की ये लाइनें हैं
“भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला, भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में.
दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल, पर, भटक रहा है सारा देश अँधेरे में”
दिनकर जी में साम्यवाद की भी हल्की झलक दिख जाती थी जब वह गरीब शोषितों के लिए लिखते थे.
“हटो व्योम के मेघ, पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं.
दूध-दूध ओ वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं.”
राष्ट्रकवि इतनें प्रखर और बेधड़क थे कि जिस पंडित नेहरू को उन्होनें ‘लोकदेव नेहरू’ का तमगा दिया, जिस नेहरू नें उन्हें 1952 से 1964 तक राज्यसभा का सदस्य बनाया, जब 1962 में नेहरू नीति की विफलता सामने आयी तो भरी संसद में दिनकर नें वही तीखे शब्द कहे जो पहले उन्होनें गाँधी के लिए कहे थे
“रे रोक युधिष्ठर को न यहाँ, जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर.”
महात्मा गाँधी की हत्या से बेहद विचलित रामधारी सिंह दिनकर नें अपनें शब्दों द्वारा भावनाएँ बयां की है
“कहने में जीभ सिहरती है,
मूर्च्छित हो जाती कलम.
हाय, हिन्दू ही था वह हत्यारा.”
जातिवाद को देश का सबसे बड़ा दुश्मन माननें वाले दिनकर जी नें लोकनायक जयप्रकाश नारायण के लिए लिखा है
“है जयप्रकाश वह नाम जिसे, इतिहास समादर देता है
बढ़कर जिसके पदचिह्नों को उर पर अंकित कर लेता है.”
भारत के प्रथम गणतंत्र दिवस पर उनकी लिखी पंक्तियाँ, आज हिंदी काव्य-साहित्य पढ़नेंवाला हर शख्स के मुँह पर होता है
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’
यह कविता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1974 के संपूर्ण क्रांति आंदोलन की टैग लाइन बनी. लेकिन अफसोस राष्ट्रकवि दिनकर जनआंदोलन से पहले हीं 24 अप्रैल 1974 को हमारे बीच से सदा के लिए विदा हो गए. लेकिन छोड़ गए वो अनमोल कविताएँ जो आज 44 साल बाद भी हर किसी के जेहन पर है. अगर भारत विविधता में एकता का देश है तो दिनकर जी ‘विविधताओं में एकता’ वाले कवि के रूप में प्रख्यात हैं.
उनके 111वें जन्मदिवस पर The Nation First की ओर से उन्हें कोटि कोटि नमन.