जब जनसंघ ने कांग्रेस से हिंदूवादी पार्टी होने का तमगा छीन लिया था
कांग्रेस के इतिहास को अगर खंगाला जाए तो पता चलता है की कोंग्रेस अपने जन्म से हिन्दू समर्थक होने का तमगा ले कर घूमती रही थी क्योंकि हिन्दू समर्थक होने के कारण ही इस पार्टी ने बहुत कुछ खो दिया, मोहम्मद अली जिन्ना जैसा नेता इस पार्टी का धुरविरोधी बन गया जो कभी कदम से कदम मिला कर चलता था .
लेकिन कांग्रेस अन्दर ही अन्दर इस बात को बखूबी जानती थी की वह एक हिंदूवादी पार्टी नहीं है और इसका जीता जागता उदाहरण उसने बदरुद्दीन तैयब्जी को कांग्रेस का अध्यक्ष बना कर दिया था . इसके बावजूद भी जिन्ना का विश्वास कांग्रेस से डगमगा गया फिर भी दोनों ही पार्टियां (कांग्रेस और मुस्लिम लीग ) साथ चलती रही ।
लेकिन लखनऊ अधिवेशन के बाद जिन्ना को यह विश्वास हो गया कि कांग्रेस केवल हिंदुओं के लिए राजनीति करती है लिहाजा मुस्लिमों के हित की चिंता करते हुए उसने कांग्रेस से ख़ुद को अलग कर लिया 1907 में जन्मी मुस्लिम लीग मुस्लिमों की आवाज़ उठाने के लिए स्वतंत्र हो चुकी थी
कांग्रेस से अलग होने के बाद जिन्ना की दलील थी की जैसे कांग्रेस केवल हिन्दुओं क लिए बनी है मुस्लिमों को कांग्रेस से कोई फायदा नहीं होने वाला और जब लीग कांग्रेस से अलग हो गई तो भला ये पार्टी संप्रादियक रंग चढाने में पीछे कैसे रहती और धीरे धीरे नफरत की आग ऐसे फैली की एक भारत के दो टुकड़े हो गए ।
अब भारत से लीग का प्रभुत्व लगभग समाप्त हो चूका था कांग्रेस ने खुद को एक बार फिर मुस्लिमों के लिए तैयार किया और उसके हक की बात करने लगा जिसका परिणाम हुआ की एक बहुत बड़ा हिन्दू तबका पीछे छूटने लगा , उनके हित की बात करने वाला कोई नहीं था. लेकिन वो दिन भी दूर नहीं रहा जब हिन्दू समर्थक पार्टी जनसंघ ने 1951 में जन्म लिया जो खुद को पूरी तरह हिंदूवादी पार्टी का नायक घोषित कर हिंदुओं की आवाज को बुलंद करने लगी .
अब कांग्रेस के पास मात्र एक ही विकल्प था कि वो किसी एक पहलू को पकड़ कर खुद को भारतीय राजनीति की दुनिया मे जीवित रखे क्योंकि जनसंघ अब हिन्दुओं को अपना बपौती मान चुकी थी हिन्दू ही इसके लिए सबकुछ थे ऐसे में कांग्रेस के लिए एक मात्र विकल्प थी मुस्लिम समुदाय ।
स्वतंत्र भारत में नेहरू ने वंदे मातरम को ले कर मुस्लिमों का समर्थन किया जब की आजादी क बाद यह तय था की वन्दे मातरम राष्ट्रगान होगा और राष्ट्र में रहने वालों के लिए इसका सम्मान करना अनिवार्य होगा ।
इसके बावजूद नेहरू ने इसका विरोध किया । उनकी दलील थी की वंदे मातरम से मुस्लमानो को ठेंस पहुँचती है जबकि इससे से पहले तमाम मुस्लिम नेता वंदेमातरम् गाते थे नेहरु का ये रुख उन्हें मुस्लिमों
के करीब ले गई ।
चुकी भारत आजाद हो चुका था जिन्ना जैसे नेता जा चुके थे और ये कांग्रेस के लिए सुनहला मौका था जब वो खुद को मुस्लिमों के लिए फिर से जीवित करे . कांग्रेस ने भी इस मौके को भुनाते हुए मुस्लिमों के हित में हज़ के लिए सब्सिड्डी देना भी शुरु कर दिया और सोमनाथ मंदिर के पुनः निर्माण का खुल कर विरोध करने लगी .
अब भारत मे दो समुदायों की राजनीति करने वाली पार्टी कांग्रेस जो मुस्लिमों के हित की चिंता करने लगी और जनसंघ हिंदुओं की । धीरे धीरे राजनीतिक खिंचा तानी चलती रही और 1985 में जनसंघ से टूट कर बीजेपी यानी भारतीय जनता पार्टी ने जन्म लिया, चुकी ये जनसंघ से टूट कर निकली थी इसलिए इस पार्टी में लोग भी वही थे जो हिंदुत्व का समर्थन करते थे ।
हिंदूवादी पार्टी होने का सबसे बड़ा उदहारण बीजेपी ने 1992 दिया जब बाबरी मस्जिद को तोड़ा गया इसमें लालकृष्ण आडवाणी जैसे बड़े नेता का नाम आय । जिसके बाद हिंदुओं को भी लगने लगा कि वाकई में बीजेपी हिन्दू समर्थक पार्टी है लिहाज हिंदुओं का वोट बीजेपी की झोली में चली गई ।
अब कांग्रेस ने इस मुद्दे को भुनाया और मुस्लिमों की तरफदारी करने लगी । बावरी मस्जिद के तोड़े जाने पर मुस्लिमों की आवाज को उठाने लगी जिससे मुस्लिमो को विश्वास हो गया की हमारी आवाज़ केवल कांग्रेस ही उठा सकती है लिहाजा मुस्लिमों का सारा वोट कांग्रेस की झोली में चली गई ।
आज भी दोनों हीं पार्टियां भले ही वोट पाने के लिए खुद को हिन्दू मुस्लिम की पार्टी घोषित करती हो लेकिन शत्य तो यही है कि दोनों दल एक-एक पहलू को पकड़ कर बैठी है और अपनी अपनी राजनीतिक रोटी सेकने में मसगुल है ।